सोचा ना था | नोटबंदी पर एक कविता - Poetrymyway
महानगर का नाला
बहते नोट और ना पूछने वाला
ना कटेगी जेब,ना टूटेगा ताला।
क्या गांव क्या शहर
चोरी-डकैती का ना कहर
सोचा ना था ,एक दिन ऐसा आएगा
बैंक डकैती का डर भाग भी जाएगा।
ना सेंध मारी ना लुटे तिजोरी
नोट फेंक माँ गाये लोरी।
दानवीरों की जमात में
किसी ने किसी के हाथ में
बांटी लाखों की रकम
लेने वाले पड़ गए कम।
नोटबंदी का फेर
बीवी के छुपे नोटों का ढेर
उसने सोचा ना था।
स्मगलिंग ,जमाखोरी
मुनाफाखोरी, करचोरी
व्यापारी हुए मालामाल
ये रुपये और नोटबंदी का सवाल
उसने सोचा ना था।
नोट कमाए थे कितने प्रयत्न से
संभाला -रखा कितने यत्न से
रिश्वत दी किसी ने किसी को
गाढ़ी कमाई कहा उसने इसी को।
ली अधिकारी ने रिश्वत,किसी मजबूर से
आय-कर को नमस्ते कहा दुर से
लाखो उगाही रंगदारी में
किसी की धोके से ,किसी ने यारी में।
गर्दन काट किसी की, मारी गोली
अरबों की रकम जमा होली
दो का चार बनाया जुए में
करोड़ों की लाटरी बेकाम हुए ये।
बिन संतो के उपदेश के
बिन जप ,तप ,जोगिया वेश के
किया एक घाट पर बकरी और शेर
किया मोदी -ब्रह्मास्त्र ने सबको ढ़ेर।
सत्ता और विपछ में एकता बहाल
देख ये आया ख़याल
विपछ को डर जनता ना कहे
सत्ता सोचे काला धन ना रहे।
महाभारत काले धन का
चक्रव्यूह भेदन का
अकेले अभिमन्यु आज फिर
युद्ध में गया है घिर
सैकड़ो कौरवो का हाथ है।
ओ अभिमन्यु ! ओ नरेंद्र मोदी !
आज तुम अकेले नहीं
हम भी तेरे साथ हैं।
....." डॉ. के.पी. बिमल " के कलम से