कलियुग (Kaliyug)-hindi kavita | Poetrymyway | published in D.A.V. Magazine
कलियुग
छोड़कर अपने आदर्श उसूल
मोर करता गुटर- गुं
जागना छोड़ सोते रहो
मुर्गा बोले कुक्कडू -कूँ।
पसंद है जिसे हरा भरा
वही बोले मरा- मरा
कुछ ऐसा है इसका प्रभाव
कि बदल जाता सबका स्वाभाव
चारो में है ये बलि युग
कहते जिसे हम कलियुग।
वस में नहीं किसी के जग में
वो होता नारी के वस में
डर कर कुछ इसकी माया से
जंगल गए दूर इसकी छाया से
मुड़ गए सभी दूसरी ओर
छोड़ कर सत्पथ का छोर।
हो कर वे पथ भ्रष्ट
कर देते जन्मदाता को नष्ट
कुछ ऐसा है इसका प्रकोप।
- Saket Singh